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नानी कहा करती थी-लाला! कुटुम्ब की कलह बरबादी की जड़ है। गृहयुद्ध से अच्छा-अच्छा घर धूल में मिल गया। बूढ़ी नानी की बात सोलह आना सच्ची है। खरे सोने सी टंच। यक्ष प्रश्न है कि इस बात को सब जानते हैं फिर भी लड़ते हैं। अब देखो महान नैतिकतावादी, शुचितावादी, शुद्धतावादी पार्टी में लड़ाई हो रही है। आलाकमान की कोई मान नहीं रहा। बेचारा आलाकमान आला तरीकों से पैंतरे बदल रहा है। कारण क्या है? दरअसल यह सारा युद्ध टोटे का है। लोकतंत्र में टोटे का मतलब है सत्ता से बाहर होना।
अब कोई इन नेताओं से पूछे कि भैयाजी जब आप राजनीति में सेवा के लिए ही उतरे हैं तो क्या फर्क पड़ता है कि आप कुर्सी के भीतर हैं या कुर्सी से बाहर, लेकिन सच यह है कि सत्ता से बाहर पड़े आदमी की कद्र दो कौड़ी की नहीं है। कल तक तो दलालों के आका थे; पार्टी के काका थे, चमचों की आंख के तारे थे, नौकरशाही के सितारे थे, अपनी मर्जी के राजा थे, विरोधियों का बजा देते बाजा थे। वे आज एक्सीडेन्ट में भिड़ी कार की तरह चकनाचूर हैं। राजनीति में दो तरह के नेता होते हैं। पहले जो सत्ताधारी हैं, दूसरे जो सत्ता से बाहर हैं। सत्ता में रहते नेता के पास सत्तर काम होते हैं। उसे अपने-अपने भाई-भतीजों, कुटुम्ब, पार्टी चापलूसों के तरह-तरह के काम करने पड़ते हैं। उसे अपने भविष्य को देख कर काम करने होते हैं। शतरंज की बिसात पर खड़े मोहरों की तरह अधिकारियों को बदलना पड़ता है। किसी से माल खींचना पड़ता है। आलाकमान तक माल पहुंचाना पड़ता है। सत्ता से अलग होते ही वह ठाला हो जाता है। उसकी हालत सरकारी नौकरी से रिटायर हुए बाबू से भी बदतर हो जाती है। रिटायर बाबूजी तो दस लाख अंटी में लेकर घर गृहस्थी संवारने और तीर्थयात्रा करने में जुट जाते हैं, पर सत्ता से बाहर नेता तो करोड़ों होते हुए भी “बेचारा” हो जाता है। जिस बंगले पर दिन- रात भीड़ रहती थी उसकी तरफ अब कोई देखता तक नहीं।
सत्ता के दिनों में सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती थी। अब दिन में हजार मक्खी मारने के बाद भी दस हजार और मार लो जितना वक्त बचा रहता है। दरअसल सत्ता इतनी मादक होती है कि कुर्सी छूटने के बाद भी उसका नशा टूटे नहीं टूटता। ऎसे में आदमी कुटुम्ब कलह करता है। जिस शराबी का मोहल्ले में जोर नहीं चलता वह घर में आकर मारपीट करता है। राजनीतिक दलों में यही होता है और यही हो रहा है। आपस में ही लड़ रहे हैं।
इस कलह का मजा सत्ताधारी ले रहे हैं। ऊपर से तो मौन हैं पर इस मौन में एक अट्टहास छिपा है। पूछो तो कहेंगे कि यह उनके भीतर का मसला है। हमें क्या लेना-देना। लेकिन लेना-देना पूरा है। पड़ोसी के घर लट्ठ चल रहा हो तो दूसरा पड़ोसी सुट्ट का आनंद उठाता है। इस कुटुम्ब कलह से वह कार्यकर्ता दुखी है जो बेचारा पार्टी के लिए पसीने बहाता है। पब्लिक में जाता है। वोट दिलाता है और फिर सत्ताधारियों के बंगलों पर धक्के खाता है। वाह रे राजनीति। वाह।
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