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डर्टी पिक्चर की हिरोइन भले ही सिनेमा को तीन ई – एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट तक सीमित कर देती हो, वास्तव में भारतीय (हिंदी) सिनेमा को क्या इन तीन ई पर ही छोड़ा जा सकता है? बड़े जनसमूह को अड्रेस करने के लिए सिनेमा से बड़ा कोई और माध्यम नहीं है। इतने बड़े माध्यम को क्या सिर्फ ढिंक चिका और बोस डी के तक सीमित रखा जाना चाहिए? भारत में कमोबेश फिल्मों ने एंटरटेनमेंट का ही काम किया है, लेकिन इस एंटरटेनमेंट का मतलब हमेशा ढिंक चिका नहीं रहा है। एक विकास की चाह रखने वाला देश होने के नाते भारत ऐसा अफोर्ड भी नहीं कर सकता।
हम अगर परिपक्व (पाश्चात्य नहीं) समाजों को देखें, तो पाएंगे कि वहां सिनेमा ने अपने समाज के संघर्षों को सामने लाने में बहुत अहम भूमिका निभाई है।
भारत में समांतर सिनेमा का दौर ने क्या दम तोड़ा, बॉक्स ऑफिस पर एंटरटेनमेंट ने कब्जा कर लिया, मानो एंटरटेनमेंट के लिए हास्य और श्रृंगार के अलावा बाकी किसी भी रस की जरूरत ही नहीं रही हो। यह बहुत बेचैन करने वाला चलन है। मगर बॉलिवुड के ज्यादातर अभिनेता संभवत: ऐसा नहीं मानते।
कोई शक नहीं कि फिल्म जितना व्यापक माध्यम हैं, उतना महंगा भी। और इसलिए एक फिल्मकार को ऐसी फिल्म बनाने का पूरा हक है, जो न सिर्फ फिल्म की कीमत वसूल करे, बल्कि उसे मुनाफा भी देकर जाए। लेकिन वे मुनाफे के लिए जरूरी एंटरटेनमेंट का दायरा बढ़ाने को तैयार नहीं। शायद उन्हें अपने टारगेट ऑडियंस का भी भान नहीं कि वह कैसा एंटरटेनमेंट चाहता है। भारत एक युवा देश है और ये युवा ऐसे हैं जो मुद्दों के प्रति बेहद संजीदा हैं। यही वजह है कि उन्हें जब भी मौका मिला है, वे अपना समर्पण दिखाने के लिए सड़कों पर भी उतरे हैं। अण्णा हजारे को मिला राष्ट्रव्यापी समर्थन इस बात का गवाह है। फिल्म वालों को कैसे समझाया जाए कि उनके लिए ढिंका चिका एंटरटेनमेंट नहीं है? उन्हें थोड़ा तो बेहतर एंटरटेनमेंट परोसिए जनाब – उनका भी भला हो और आपका भी।
वैसे तो अच्छे और अर्थपूर्ण सिनेमा का हमेशा से ही वक्त रहा है, लेकिन इधर पिछले कुछ सालों से लगातार कई औसत फिल्मों के हिट होने के बाद दर्शकों में अच्छी फिल्मों की भूख बढ़ गई है। चुनौती फिल्मकारों के लिए है कि वे लीक से हटने का साहस कर पाते हैं या नहीं।
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