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अन्ना आन्दोलन को श्रद्धांजलि!…..

बेबाक 'बकबक'....जारी है..
बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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annaजिसका डर था वही हुआ। टीम अन्ना टूट गई। ये तो होना ही था। कई राजनीतिक दलों के चेहरे खिल उठे हैं। जिस दिन जंतर- मंतर पर अनशन अचानक खत्म कर अन्ना हजारे ने राजनीतिक दल बनाने की घोषणा की थी उसी दिन ये साफ हो गया था कि अब यह आन्दोलन ज्यादा दिनों तक नहीं चलने वाला।

अन्ना ने अपने फैसले पर यू-टर्न लेकर एक बार फिर कई को खुश होने का मौका दे दिया। इनमें कांग्रेस भी है और भारतीय जनता पार्टी भी। लालू-माया-मुलायम सभी खुश हैं। वे मंत्री भी खुश हैं, जिन्हें अपना भविष्य तिहाड़ जेल की काल कोठरी में दिख रहा था।

अन्ना ने पहले राजनीतिक दल बनाने की घोषणा कर गलती की और अब उससे यू-टर्न लेकर दूसरी गलती कर दी। अब आगे से जनता उन पर कैसे और क्यों भरोसा करे। क्या अन्ना विशाल जन समर्थन को पचा नहीं पाए?

आखिर अन्ना ने इतना बड़ा कदम क्यों उठाया, जिससे एक ही झटके में पूरी टीम ही बिखर गई और भ्रष्टाचारियों के चेहरे खिल गए। क्या राजनीति में आने का फैसला उन्होंने बेमन से और किसी के दबाव में लिया था या अब यू-टर्न लेने का फैसला किसी के दबाव में लिया है। क्या अरविंद केजरीवाल की अतिमहत्वाकांक्षी गतिविधियों ने उन्हें ऐसा करने को मजबूर कर दिया?

एक बात तो तय है कि आन्दोलन की शुरुआती सफलता के बाद अरविंद केजरीवाल खुद को अन्ना हजारे का विकल्प समझने लगे थे। धीरे- धीरे उनकी टीम जनलोकपाल के अपने लक्ष्य से भटकने लगी थी। उनकी टीम के सदस्य “जूता सिलाई से लेकर चंडी पाठ करने” तक पर खुद को विशेषज्ञ समझने लगे थे।

अति तो तब हो गई जब “मैं अन्ना हूं” वाली टोपी की जगह “मैं अरविंद हूं” वाली टोपी ने ले ली। हो सकता है ऐसा अरविंद के कहने पर न हुआ हो पर अरविंद ने इसे रोकने की कोशिश भी तो नहीं की। कम से कम मंच से एक बार बोल देते। वो भी ऐसा तब हुआ जब एक विरोध प्रदर्शन में अन्ना उपस्थित नहीं थे। अरविंद समर्थकों ने अन्ना को रिटायर्ड हर्ट मान लिया। हो सकता है,बड़े दिल वाले अन्ना को इससे फर्क नहीं पड़ा हो पर मेरे जैसे अन्ना समर्थकों को इससे बड़ा बुरा लगा।

अरविंद केजरीवाल एक बड़े रणनीतिकार हैं। इसमें दो राय नहीं कि जनलोकपाल आन्दोलन उनकी कोशिशों के बगैर इतनी दूर तक पहुंच ही नहीं सकता था। लेकिन वह एक जननेता नहीं हो सकते। अन्ना की तरह किसी विशाल आन्दोलन की अगुवाई नहीं कर सकते। सीधी भाषा में कहें तो भीड़ नहीं जुटा सकते। और आजकल भीड़ के आकार प्रकार से ही किसी आन्दोलन की सफलता-विफलता आंकी जाती है।

अरविंद के व्यहवार से किरन बेदी ने पहले ही दूरी बनानी शुरू कर दी थी। वह भी आनदोलन को राजनीतिक विकल्प बनाने के खिलाफ थीं। तो क्या किरन सरीखे सहयोगियों ने अन्ना को यू-टर्न के लिए उकसाया। या उन लोगों ने इसमें भूमिका निभाई जो नहीं चाहते थे कि राजनीति में आकर टीम अन्ना कांग्रेस विरोधी वोट बैंक में सेंध लगाए और भारतीय जनता पार्टी को नुकसान पहुंचाए। अन्ना और बाबा रामदेव की कथित गुप्त मुलाकात को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।

वजह जो भी हो, अन्ना आन्दोलन को नुकसान पहुंच चुका है। अब यह आन्दोलन पहले की तरह उठ खड़ा हो पाएगा, इसकी सम्भावना कम है। एक जवान आन्दोलन की अकाल मौत पर हम दुखी हैं और इसे भावभीनी श्रद्धांजलि देते हैं। और उन्हें बधाई देते हैं जिनके भाग्य से ये छीका टूटा है।

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