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सचिन तेंदुलकर-संघर्ष, सम्मान और संन्यास!!

बेबाक 'बकबक'....जारी है..
बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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सारा राष्ट्र सचिन तेंदुलकर को यह बताने में एक बार फिर जुट गया है कि उन्हें संन्यास लेना चाहिए या नहीं। विश्व के महानतम क्रिकेटर के सामने उठा यह संकट, उन्हीं तक सीमित नहीं है। हम सभी के लिए यह ‘क्या करें, क्या न करें’ के सबसे बड़े असमंजस का सबसे प्रभावी उदाहरण बनकर उभर रहा है। और यह जिस तरह से खत्म होगा, हम सभी को निश्चित राह दिखाएगा।
सचिन के संकट तीन तरह के हैं। संघर्ष। सम्मान। संन्यास।
यदि आप सर्वश्रेष्ठ हैं तो आपसे हमेशा सर्वश्रेष्ठ की ही अपेक्षा की जाती रहेगी। यह दबाव हर उस शख्स पर हमेशा रहेगा जो शीर्ष पर है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में। कई बार यह उम्मीद असहनीय हो जाती है। किन्तु बनी ही रहती है। सचिन लगातार इससे संघर्ष कर रहे हैं। फुटवर्क खराब हो जाने का आरोप उन्हें इस कदर विचलित कर देता है कि मैच के पहले, बाद में या कि जब भी मौका मिले, वे प्रैक्टिस करने में जुनूनी हद तक देखे जा सकते हैं। मानो सबकुछ नए सिरे से शुरू करना हो। महान हस्तियों का स्वाभाविक गुण है यह। किन्तु संघर्ष प्रदर्शन का है, प्रैक्टिस का नहीं। संघर्ष शतक का है, अच्छे खेल का नहीं। शतकों के शतक का पर्वत जिन मजबूत कंधों पर हो, उसे भी यह संघर्ष सता सकता है- विडम्बना ही है। किन्तु है और वास्तविक है।

दूसरा संकट है, सम्मान। वे इतने बड़े हैं कि उन्हें किसी से सम्मान नहीं चाहिए। दुनिया दीवानी है उनकी। वे इतने सहज हैं कि गर्व छू तक नहीं गया। इतने सरल हैं कि उनके संन्यास की बात करने वाले बड़े-छोटे सभी, कह कर खुद दुरूखी हो जाते हैं। बिरलों को ही मिला होगा इतना सम्मान। अब तो संकट अजीब से खड़े हो रहे हैं- उन्हें हूट किया जा रहा है। हटने को कहा जा रहा है। साधारण क्रिकेट प्रेमी दर्शक ऐसा कह रहे हैं। हैं मुठ्ठी भर ही, किन्तु यह सकते में ला रहा है, समूचे राष्ट्र को। समूचे क्रिकेट विश्व को। यानी सचिन को आवश्यकता नहीं, किन्तु उनके करोड़ों प्रशंसकों को है कि सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे उनके आदर्श को किसी भी तरह सर्वोच्च ही बने रहना चाहिए। यह नए तरह के सम्मान का संकट है। नहीं होना चाहिए। किन्तु बोर्ड, पूर्व खिलाड़ियों, टीकाकारों और दर्शकों ने कहीं न कहीं इसे आकार दे ही दिया है।
तीसरा संकट- संन्यास। उनकी उम्र हो गई है- यह बात इसलिए आई है क्योंकि वे रनों का विराट रूप नहीं दिखा पा रहे। वरना सफलता या कि अजूबा, उम्र का कहां मोहताज है! ग्रेग चैपल ने उनकी तुलना स्टीव वॉ से करते हुए उन्हें कह दिया था कि संन्यास ले लें, वरना टीम से बाहर कर दिया जाएगा। सुनील गावस्कर उन्हें हटने की खुली सलाह देकर खुद अपनी बात से हट जाते हैं- इसलिए कि सचिन का सम्मान रहे। सचिन दो टूक कह चुके हैं कि वे ‘लोगों को यह तय करने का अधिकार नहीं देंगे कि वे कब संन्यास लें’।
स्पष्ट है कि जिन्हें वे मानते होंगे, मान देते होंगे, उन्हीं से सलाह लेंगे। वैसे इतने बड़े व्यक्तित्व को और सचमुच सिर्फ उन्हें ही यह फैसला लेना होगा। वे संन्यास कब लेंगे? और कैसे लेंगे? ये दो बड़े प्रश्न हैं जो फिर भी बने हुए हैं। समझा जाता है कि उन्होंने बोर्ड को, चयनकर्ताओं को अब कोलकाता टेस्ट में चुन लिए जाने के बाद, कह दिया है कि ‘बगैर उनको देखे वे फैसला लेने को स्वतंत्र हैं’। यह स्वतंत्रता तो बोर्ड के पास पहले से है। द्रविड़ और लक्ष्मण के संन्यास को एक शालीन प्रक्रिया के तहत अंजाम दिए जाने के उदाहरणों पर संभवतः सचिन का यह रूप सामने आया है। इससे पहले वे ‘दो साल और’ खेलने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं। उन्हें टेस्ट क्रिकेट में 23 साल हो चुके हैं। इसलिए सिल्वर जुबली चाहने की बात कही जा रही है। सचिन, सचिन हैं। न किसी पारी, न किसी जुबली न किसी सम्मान से उनमें कोई कमी या वृद्धि होगी। किन्तु तय करने में देरी से ‘भक्त’ विचलित होंगे क्योंकि ‘भगवान, चाहे क्रिकेट के ही क्यों न हों, भगवान की तरह ही आने, रहने और जाने चाहिए’।

प्रवीण दीक्षित
9044060578

क्या अब वक्त हो चला ??
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