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’हाइवे’ के नीचे दब गई गावों की आत्मा !

बेबाक 'बकबक'....जारी है..
बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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गांव जब शहर से घिर जाता है तो कांव-कांव करने लगता है। धकमपेल मच जाती है। उसकी जमीन पर अलकतारा बिछ जाता है। उसके किनारे खरबूजे की दुकान,और उसके आगे शिखर गुटखे की भरमार।
हाइवे के नीचे दबे गांवो की आत्मा ऐसी दुबकी नजर आती है कि पल्सर पर बैठा प्रधान सड़क की रेलिंग से चिपके-चिपके रांग साइड से चलता मिल जाता है।रोडवेज की बस को हांक लेते थे,अब तो वो भी आंख दिखाकर चली जाती है।वृद्धावस्था पेंशन योजना का प्रचार करने वाली यह बस किसी बूढ़े को देखते ही भागने लगती है।प्रेशर हाॅर्न ऐसे मारती है, जैसे खुद को प्रेशर मार गया हो ।सड़कों ने गावों को मेन रेाड से सरका दिया है।सड़क तो है,मगर रास्ता नहीं। दायें,बायें देखते हुए सामने से आ रही गाडि़यों की रफतार का अंदाजा लगाते हुए,दम लगाकर भागना और डिवाइडर पर खड़े होकर दम साधना ।एकदम जैसे गांव किसी कार-ट्रक युद्ध में फंस गए हों और उनके पास आखिरी ब्रम्हास्त्र बचा है,ट्रैक्टर।जो लड़ता कम,अकड़ता ज्यादा है।जैसे-तैसे पार तो करा देता है,मगर वार नहीं करता।
गांव क्या है? इसकी परिभाषा कई लोगों ने दी।एकाध मैं भी दे देता हूं।
गांव एक होने वाला शहर है जिसके लोगों को शहर बसाने के लिए खदेड़ा जाने वाला है। गांव एक गैराज है जहां सरकार की योजनाएं खड़ी की जाती हैं । दर,दीवार पर पीले रंग की सर्वशिक्षा अभियान की पार्किंग आपको अक्सर दिख जाएगी। खाद से लेकर नसबंदी तक,पैदाइश से लेकर शादी तक बालिका विवाह योजना से लेकर साईकिल की बंटान का एलान प्लान ।योजनाएं कागजों में ही पड़े-पड़े सड़ जाती हैं,पर लागू नहीं होतीं । गांव में निराशा न फैले इसलिए मुख्यमंत्री की हंसते हुए फोटो लगा दी जाती है।जब वो खुश हैं,तो आप क्यों नहीं भाई। कुल मिलाकर गांव एक विकासशील अवाधारणा है।
गांव में कोई आता नहीं है। सब जाते ही हैं। कोई दिल्ली दुकान लगाने जा रहा है,तो कोई ब्लाॅक अफसर से मिलने कचहरी जा रहा होता है।ट्रैक्टर की ट्राली में भरकर औरतें गंगा स्नान को जाती हैं।टैम्पो में पीछे लटककर बच्चे स्कूल जाते हैं।इनमें से कुछ तो केवल मिड-डे मील लेने जाते हैं,वहीं बाकी अनजाने में ही सही देश की साक्षरता दर बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं। वहीं इनके पापा लोग सवेरे-सवेरे हाथों में टिफिन का डिब्बा लिए अपने अपने दुपहिया से नौकरी और मजदूरी करके देश की जीडीपी बढ़ाने निकल जाते हैं।
गांवों को आत्मनिर्भर का हर प्लान फेल हो गया । गांवों ने योजनाओं से लेकर नए शहरों के भविष्य को खुद पर निर्भर रहना सिखाया है।यूं कहिए योजना आयोग की योजनाएं गांवों पर निर्भर हैं। आयोग की भौजाई है गांव। घूंघट निकाले राजीव,इंदिरा,अटल,विवेकानंद का नाम लिए जब बिजली,सड़क,पानी का आगमन होता है तब ये नाम की भौजाई दरवाजे के पीछे शर्माकर खड़ी हो जाती हैं।
लगता है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। शरीर तो दिल्ली,मुंबई,दुबई की बस्तियों में चले गए हैं। आत्माएं ही भटक रही हैं गावों में। गांव खंडहर से लगते हैं। ये शरीर जब अपनी आत्माओं को फोन करते हैं,तब अचानक हलचल मचती है। पहले गोविंदा का गाना बजता है फिर आवाज आती है ३ण्ण्।हेलो! गांव कनेक्शन हो जाता है। एयरटेल,यूनिनाॅर,एयरसेल,बीएसएनएल और वोडाफोन की कृपा से ये गांवों की आत्माएं थिरकने लगती हैं। इन गांवों ने अपनी योजनाओं को किनारे लगाकर मुंबई,दुबई की योजनाओं को पूरा करने के लिए लोग भेजे हैं। तभी तो गांव भूत के डेरे हैं। यहां की छतों से रात को आवाज आती है। मरी पड़ी योजनाएं धम-धम कर चलती हैं। उनके पावों की घुंघरू छम-छम बजती हैं ।कहीं से शिक्षा अभियान हूं-हूं की आवाज निकालता हैं,तो कहीं हरियाली योजना हर-हर,झर-झर की आवाजें निकालती है। दिन होते ही गांव भूतकाल से लेकर वर्तमान काल में आ जाता है।
मेरा बचपन भी गांव में बीता है। बेल की गाछ के नीचे रहने वाला भूत कोई और नहीं बल्कि योजना आयोग का प्लान है। हमारे गांवों में अर्बन यानि शहरी भूत आ गया है।

दिल्ली कि योजना भवन में जैसे ही किसी पुरानी योजना की मौत होती है और उसका नई योजना के रूप में पुनर्जन्म होता है,तब बेल के गांछ के नीचे वाला यह भूत डांस करने लगता है। हम भूतों से घिर गए हैं। सरकार ने हर भूत की गिनती पहले ही कर ली है। मसलन कितनी महिलाएं गर्भवती हैं,कितने पेंशनभोगी और कितने मिड-डे मिल भोगी। दलिया खिलाकर सरकार अपनी दाल गला रही है। अच्छा-अच्छा शहर का ण्ण्ण्ण्ण् बाकी भूतों के डेरे वाले इन गांवो को ।

प्रवीण दीक्षित
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