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“यार, यहां पर बड़ी Politics हो रही है।”

बेबाक 'बकबक'....जारी है..
बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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मुझे नफ़रत हैं ऐसे लोगों से। लेकिन क्या करें, कुछ लोगों की दुकानदारी ही ऐसे चलती है। वो उस मछली के किरदार में होते हैं जो पूरे तालाब को सड़ा देती है। जिनका स्वार्थ ही दूसरों को छोटा साबित करके ख़ुद को बड़ा बनाना है। और आख़िर में अपनी आदत से मजबूर होकर वो अपने ज़मींदोज़ होने का मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं।

आप किसी भी सरकारी या गैर सरकारी दफ़्तर में काम करते हों। ज़रा बताइए, कितने लोग हैं आपके दफ़्तर में जो अपनी नौकरी से संतुष्ट हैं। अरे, लोग जिसकी नौकरी करते हैं, उसी को गाली देते फिरते हैं। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। लोग परस्पर किसी भी मुद्दे पर असहमत हों लेकिन अपने नौकरी और बॉस को लेकर कामोबेश सभी एक दूसरे से सहमत होते हैं। सभी का ‘संस्थागत मानसिक स्तर’ ख़तरे के निशान से ऊपर ही रहता है। सरकारी नौकर अपने अधिकारी से परेशान और प्राइवेट वाले अपने बॉस से। ये ना नौकरी के सगे होते हैं और ना अपने।

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ऑफ़िस में लोगों को अपना बॉस हिटलर का बेवकूफ़ क्लोन क्यों नज़र आता है? कर्मचारियों का मानना होता है कि बॉस तो कर्मचारियों को मज़दूर समझता है। दफ़्तर के सर्वाधिक नाकारे लोग बॉस को गाली देते फिरते हैं। जिनके पास काम होता उन्हे बॉस और सहकर्मियों को गाली बकने का समय नहीं मिल पाता, लिहाज़ा वो घर आकर अपनी व्यस्तता का frustration अपने बीवी-बच्चों पर निकलाते हैं। बॉस कितना भी अच्छा क्यूं ना हो कभी प्रशंसा का पात्र नहीं बन पाता।

पता नहीं क्यूं, हर तरह का कर्मचारी अपने को शोषित मानता है। जो कुछ काम नहीं करते वो कहते फिरते हैं कि मेरी प्रतिभा को यहां कुचला जा रहा है, मुझे मौक़ा ही नहीं दिया जाता, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा। कोई और धंधा पानी शुरू करूंगा। और जिनसे काम लिया जाता है, वो भी यही कहते घूमते हैं कि मेरा शोषण हो रहा है, वेरी वॉट लगा रखी हैं, गधों की तरह मुझसे काम लिया जाता है, मौक़ा मिलते ही मैं तो जंप मार जाऊंगा।

ना जाने क्यूं कुछ लोग अपने जिस दफ़्तर को जहन्नुम बताते फिरते हैं, उसे ये जानते हुए भी नहीं छोड़ना चाहते कि उनके ना रहने से कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं। वो जन्म भर की तरक्की की उम्मीद वहीं रहकर करते हैं, उनकी प्रतिभा भी पहचान ली जाए, सारे महत्वपूर्ण काम उन्ही से कराए जाएं, उनकी तनख्वाह भी उनके मन मुताबिक हर साल बढ़ा दी जाए, उनके अलावा किसी और को भाव ना दिया जाए और फिर वो ग्रैचुइटी के साथ पेंशन भी वहीं से पाएं। अरे भाई, आप इतने ही प्रतिभावान हैं तो कहीं और किस्मत क्यों नहीं आज़माते। अपनी नौकरी को गाली भी बकेंगे और रहेंगे भी वहीं। ये भी ख़ूब है।

कुछ लोगों को हमेशा लगता है कि सबसे ज़्यादा काम तो वही करते हैं, फिर भी उनकी तनख़्वाह इतनी कम है और बाक़ी सारे तो बस गुलछर्रे उड़ाने की सैलरी पाते हैं। काम मैं करता हूं और पैसे दूसरों को मिलते हैं। …..छोड़ूंगा नहीं।

ऐसे ही कितने ही प्रतिभावान लम्मपट दूसरों की तरक्की में टंगड़ी लड़ाने के चक्कर में अपनी ही छीछालेदर कर बैठते हैं। क़ाबलियत के दम पर किसी से आगे निकलने के बजाए, टांग अड़ाकर दूसरों को गिराने की कोशिश करते हैं। ना ही वो बड़े बन पाते हैं और हमेशा इस ग़लतफ़हमी में भी रहते हैं कि उन्होंने दूसरों को बड़ा नहीं बनने दिया।

राजनीति…….! यार, यहां पर बड़ी politics हो रही है। उनकी ज़ुबां पर बस यही डॉयलाग होता है। और politics सच में शुरू हो जाती है।

यहां राजू श्रीवास्तव का एक चुटकुला सार्थक रहेगा। राजू भाई कहते हैं कि जैसेपुरातन काल के अवशेष आज ज़मीन से निकलते हैं और फिर उनका अध्ययन होता है, वैसे ही आज की चीज़े कई सौ साल बाद निकलेंगी। कई सौ साल बाद जब ज़मीन से CD और DVD निकलेंगी तो अनुमान लगाया जाएगा कि ये निश्चित ही मनुष्य के खाना परोसने की थाली रही होगी। फिर कोई कहेगा कि अगर ये थाली रही होगी तो इसमें छेद कैसे हो गया है? ………….फिर शोध का नतीजा निकलेगा कि मनुष्य जिस थाली में खाता था उसी में छेद करता था।

प्रवीण दीक्षितpolitics

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