बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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वो चलती रही
निरन्तर
जैसा जिसने चाहा
वह करती रही
अपने लिये
उसने
कभी सोचा नहीं
या वक्त
नहीं मिला सोचने का
दूसरों के लिए
वो खुशियां लाती अपनी
मुस्कराहटे देकर
खरी बात
कोई कहता तो
अनसुना कर देती उसको
भावनाओं का उसका
बड़ा गहरा
नाता था उसे निभाना
जो आता था
यदि उसने
सीखा न होता निभाना
पर कैसे
छोड़ देती वह यह गुण
जो उसे विरासत में
मां से मिला था
कभी वह मां पर हंसती थी
इन बातों को लेकर
आज उसके बच्चे
हंसते हैं उसपर
क्या मां
कभी तो अपने बारे में
सोचा करो
तब वह सोचती …पल भर को
ठिठकती …
फिर चल पड़ती …
उसी राह पर
जहां से चली थी ….जैसे चली थी …।
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