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ऐ गुडिया तेरे दर्द को, चीख केा …

बेबाक 'बकबक'....जारी है..
बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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ऐ गुडिया तेरे दर्द को, चीख केा …
इस चेहरे की किताब पर उतारने को ,
शब्‍द चयन कर रहा हूं…
क्‍या करूं मैं अकेला मगर ,
यह कलम भी न दे साथ अगर !!
तेरे मासूम दर्द से आज कलम तक कराह रही है…
न शब्‍द पिरो पा रहा हूं, न सूझ कोई दूजी राह रही है !!

कलम कर रही है शिकवा…
कि अभी दिसंबर में ही तो दर्द किया था बयां!!
फिर से दे दिया मुझे इक दर्द नया !!
फिर अभी तेा सूखी तक न थी स्‍याही सही से ,
फिर से कैसे करूं शुरूआत वहीं से!!!

जैसे तैसे लिख दिया था दर्द …
पर इस बार कैसे बतला दूं ?
कि तुझे गुडिया समझ ,
तुझसे खेलने वाला है ..
इस दुनिया का सबसे बडा ना’मर्द’ !

पर गुडिया इस छोटे से लेखक को मत लगाना हाय…
क्‍योंकि मैंने देख लिया करके हर उपाय !
सोचा था कि शायद यह कलम हो गई है खराब,
लगा कि बीच राह में ही छोड गया कोई राही …
इसलिए मैं निकल पडा लेने नई स्‍याही..
फिर जैसे ही लिखने बैठा इस बार ,
कि बह गई कलम से तेरे आंसुओं की धार !!

यह देख खुद को रोक न पाया….
विरोध जताने खुद रोड तक आया !
लेकिन सारी मेहनत गई जाया ,
तेरा दर्द बांटने ..
उन सरकारी बंगलों से ,
कोई बाहर तक न आया !!!

एसी की ठंडी हवाओं में शायद सो रहे थे वो,
इस तपती धरती पर घर से बाहर तक न निकले जो !!

वैसे अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए,
पीएम ने टवीट किया है !
खुद के संवेदनशील होने का प्रमाण दिया है,
लेकिन एक सोच आती है फिर भी …
कि आखिर दिसंबर से अप्रैल तक इन्‍होंने क्‍या किया है ?

हो सके तो हमें माफ कर देना ,
लेकिन अपने श्राप से ..
उन दरिंदो को जरूर साफ कर देना ,
जिनकी इस देश में बन चुकी है एक लंबी चौडी सेना !!!

ऐ गुडिया तू जब तक बनी रहेगी गुडिया,
तब तक ये वहशी तुझसे यूं ही खेलते रहेंगे …!
इसलिए छोड कलम हमें तलवार होगी अब उठानी ….
अगर इन दरिंदो से अपनी और अपने देश की ,
लाज है बचानी !!

तंत्र तो है ही बीमार ,
लेकिन हम भी है तेरे गुनहगार !
क्‍योंकि तेरे दर्द को हम सुन न सके ,
जब तू चीख रही थी बार बार ..!!

-प्रवीण दीक्षित

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