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हिंदी सिसक रही है, माथे की बिंदी खिसक रही है …!

बेबाक 'बकबक'....जारी है..
बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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अग्रेज़ी के पीछे वो हिंदी सहमी सी क्‍यों खड़ी है ? क्‍या यह अंग्रेजी की हेकड़ी है ? क्‍या इसको आधुनिकता की मार पड़ी है ? क्‍या इसको लगी पाश्‍चात्य सभ्‍यता की हथकड़ी है ? या फिर हक़ीकत की श्रंखला में छिपी कोई नई कड़ी है ?

हिंदी और अंग्रेजी के तमामों तमाम तुलनात्‍मक विश्‍लेषण हुए । कुछ प्रकाशित हुए, कुछ निष्‍कासित हुए। ये बेहतर है , वो बेहतर है। इससे आगे बात बढ़ती ही नहीं !

नि:संदेह , भाषा स्‍वतंत्रता की परिचायक है। संवाद का ज़रिया है। यह तो महज़ किसी एक सोच को , भाव को, विचार को व्‍यक्‍त करने का माध्‍यम मात्र है। ऐसे में,संवाद स्‍थापित करने का कोई माध्‍यम प्रतिष्‍ठा , सम्‍मान आदि का सूचक कैसे हो सकता है ? किस आधार पर इसे राष्‍ट्रवाद का प्रतीक मान लिया जाए ? कल तक सरहदों की दूरियां मिटातीं आईं भाषाओं को आज दूरियां बनाने की वज़ह क्‍यों माना जा रहा है ? आखिर कोई भी भाषा इस संदर्भ में जिम्‍मेदार कैसे हो सकती है ? कोई भी भाषा स्‍टेटस सिंबल का प्रतीक कैसे हो सकती है ? आज भाषाओं को निजी हित और आपसी होड़ के रूप में इस्‍तेमाल क्‍यों किया जा रहा है ?भाषा प्रायोजित नहीं। फिर यह होड़ कैसी और क्‍यों ? भाषा की बेहतरी की उधेड़बुन कोल्‍ड वॉर का कारण बनकर क्‍यों उभर रही है ? भाषा आपसी हितों के टकराव की वजह कैसे हो सकती है ? हिंदी-भारत के माथे की बिंदी। कितना सच , सटीक और रेलीवेन्‍ट है यह स्‍टेटमेंट , खासतौर पर वर्तमान परिद्रश्‍य केा देखते हुए ? हर एक भाषा को समान नज़र से देखने पर आम सहमति क्‍यों नहीं बनती है ?

ऐसे में इसे निजी प्रतिष्‍ठा,मान या सम्‍मान आदि से जोड़ना न्‍यायोचित नहीं है। किसी भाषा की जानकारी होना,उससे परिचित होना कोई जुर्म नहीं है। बेशक, संवाद के दौरान किसी भाषा का चुनाव करने के लिए हम आज़ाद हैं। आज़ादी का बेज़ा इस्‍तेमाल करना या फिर इसका दुरूपयोग करना कम से कम नैतिकता की कसौटी पर किसी ज़ुर्म से कमतर नहीं है । किसी भाषा को उपेक्षित करना या फिर उसका इस्‍तेमाल करने वालों का उपहास करना सामाजिक संजीदगी के प्रति हमारे रवैये को कटघरे में खड़ा करता है। किसी भाषा विशेष के प्रति कुंठित अवधारणा का यह सैम्‍पल उस भाषा को क्षति पहुंचाने के लिए पर्याप्‍त भर है।

हिंदी को लेकर सियासत का पहिया भी चटखारों की हवा की वजह से लुढ़कता आया है। तथाकथित सियासी सूरमा अक्‍सर ही अपने संबोधन में भाषा विशेष के प्रति अपने लगाव को जगजाहिर करते हैं ।मुलायम सिंह समय-समय पर खुद को हिंदी हितैषी साबित करने का प्रयास करते रहते हैं। ऐसा लगता है कि मानो बस यहीं है,हिंदी के मसीहा ! धरती पुत्र ने अंग्रेज़ी को बंदिशों की सींखचों में खींचने का पूरा बंदोबस्‍त कर लिया है। चचा केंद्र की सत्‍ता पर काबिज़ होने का ख्‍वाब पाले बैठे हैं। काबिज़ होने की जद्दोजहद में मानसिक कब्‍ज़ हो गया है, शायद ! मन ही मन ख्‍याली पुलाव पक रहे हैं।

हर एक भाषा का अपना गौरव है।अपनी महत्‍वता है। ज़रूरत है तो सोचने की। एक गंभीर विमर्श करने की । संकीर्णता की बेडि़यों को तोड़ना होगा। निजी हितों की दीवारों से फांदकर वास्‍तविक दुनिया से गुफ्तगू करनी होगी। कम्‍पैरिज़न नहीं, विज़न चाहिए।
हालांकि, इस बात से हम मुकर नहीं सकते कि हिंदी की लोकप्रियता हाशिए पर जा रही है। दैनिक संवाद में इसके प्रयोग का स्‍तर दिनोंदिन गिर रहा है। हिंदी दुबक रही है। सिसक रही है। आखिर ऐसा क्‍यों है कि हमारे देश की मदर टंग ही हैंगर पर टंगी हुई है ! हिंदी उपेक्षित क्‍यों है ? आज हिंदी उपहास का पात्र बनती हुई क्‍यों प्रतीत हो रही है ? वो भी एक हिंदी बाहुल्‍य देश में !

देखो ज़रा गौर से,सिसकियां ले रही है हिंदी …
शायद नीचे खिसक रही है देश के माथे की बिंदी !

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