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सरहद किनारे बैठकर बस सोचता रहता हूं मैं …
इन चलते फिरते सायों में अपनों को खोजता रहता हूं मैं ..
है मुफ़लिसी इधर भी , है मुफ़लिसी उधर भी ,
फिर क्यों नहीं हम एक हैं ,जवाब खोजता रहता हूं मैं !
नफ़रतों के बीज बोकर कुछ भी तो हमको न मिला ..
करने से ऐसा ,मिला है हमको यह सिला ,
कि हर शख्स को अब भी है गिला ….
हम दोनों के दरमियां कब खत्म होगा यह सिलसिला !!
भूगोल के नक्शे पर यूं नज़दीक सबसे खड़े हैं हम…
होकर इस बात से वाकिफ भी ,फिर दूर क्यों रहते हैं हम,
नाहक ही फिर भी जि़द पर , अबतक हम क्येां हैं अड़े ….
है क्या हमारे पास ऐसा नाज़ जिसपर कर सकते हैं हम !!!
मत बटोरों उन पन्नों को,जो इतिहास बनकर है पड़े …
ये सोचना अब छोड़ दो,क्यों हम लड़े ,क्यों वे लड़े ,
बहती विकास की धारा को ताकते ही ताकते ….
कहीं समंदर के तट पर ही न रह जाएं हम यूं ही खड़े !!!!
सरहद किनारे बैठकर बस सोचता रहता हूं मैं….
हम क्येां नहीं हैं एक,जवाब खोजता रहता हूं मैं !!!!!
9044060578
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