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भगवान है कहां रे तू…

बेबाक 'बकबक'....जारी है..
बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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( PK review)
जिस फिल्म को लेकर देश भर में हो-हल्ला हो रहा है उसे मुझे बड़ी ही शांति से देखने का अवसर प्राप्त हुआ. मिनी थियेटर यानि लैपटॉप पर फिल्म चल रही हो और तन्हाइयों के पॉपकॉर्न साथ में हो तो फिर तो दिमाग कहानी पर ही केंद्रित रहता है. बात अगर पीके की कहानी की करें तो फिल्म परफेक्शन की उस हर नब्ज को छूने की कोशिश करती है जिसे किसी फिल्म की कहानी को छूना चाहिए. अदाकारी, सिनेमेटोग्राफी, सीन सिक्वेंस, संगीत, डायरेक्शन आदि सब काबिल-ए-तारीफ है. हालांकि, निजी तौर पर मुझे इस फिल्म में ‘भगवान है कहां रे तू…’ को छोड़कर हर गाना गैर जरूरी लगा. किसी दूसरे ग्रह से धरती पर रिसर्च को आए शख्स को जमीन पर उतरते ही यहां की सामाजिक बुराई का सामना करना पड़ता है. उसे अपनी दुनिया से जोडऩे वाला रिमोटवा चोरी हो जाता है. जिसे निजी स्वार्थ के मकसद से एक चोर चुरा लेता है. यही बनता है फिल्म की कहानी की शुरुआत और अंत की वजह. लेकिन रिमोटवा खोने से लेकर इसके मिलने के बीच जो कुछ होता है या घटता है वह एकबारगी सोचने के लिए मजबूर करता है. यह समाज के दोहरेपन को, मान्यताओं को, धार्मिक आडंबर को, धर्म के ठेकेदारों को व हमारी सोच को सवालों के कटघरे में खड़ा करता है.
हमारे गोले की दुनिया के रीति-रिवाजों से अपरिचित शख्स का जब यहां की हवा से परिचय होता है तो उसे उसी हवा में रमने के लिए खुद को बदलना होता है या फिर खुद को यहीं के रंग में रंगना होता है. जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र व बोली आदि पैमानों पर जहां अपनों को ढूंढा जाता हो वहां किसी और ग्रह का इंसान आ जाए तो उसे क्या महसूस होगा, उसे कैसा लगेगा…इसी को बयां करते हैं ये शुरुआती डॉयलॉग. किरदार के रूप में किसी नवजात शिशु को लेना मुमकिन नहीं था लेकिन अगर यही डॉयलॉग और फिल्म की पूरी कहानी किसी नवजात को केंद्र में रखकर देखी जाए तो यकीनन फिल्म का मैसेज सार्थक हो जाएगा.
‘बहुत ही कनफुजिया गया हूं भगवान. कुछ तो गलती कर रहा हूं कि मेरी बात तुम तक पहुंच नहीं रही है हमारी कठिनाई बूझिए न. तनिक गाइड कर दीजिए… हाथ जोड़ कर आपसे बात कर रहे हैं…माथा जमीन पर रखें, घंटी बजा कर आप को जगाएं कि लाउड स्पीकर पर आवाज दें. गीता का श्लोक पढ़ें, कुरान की आयत या बाइबिल का वर्स? आप का अलग-अलग मैनेजर लोग अलग-अलग बात बोलता है. कौनो बोलता है कि मंडे को फास्ट करो तो कौनो बोलत है मंगल को, कौनो बोलता है कि सूरज डूबने से पहले भोजन कर लो तो कौनो बोलता है सूरज डूबने के बाद भोजन करो. कौनो बोलता है कि गइया की पूजा करो तो कौनो कहता है उनका बलिदान करो. कौना बोलता है नंगे पैर मंदिर में जाओ तो कौनो बोलता है कि बूट पहन कर चर्च में जाओ. कौन सी बात सही है, कौन सी बात लगत. समझ नहीं आई रहा. पूरा फ्रस्टेटिया गया हूं भगवान!
धर्माडंबर और अहंकार के चोंगे में लिपटी हमारे ग्रह की दुनिया में दूर ग्रह से एक एस्ट्रोनॉट आता है. उसे यहां रिसर्च करनी होती है. वह जिस प्लेनेट से यहां आया है, वहां भाषा का आचरण नहीं है, वस्त्रों का आवरण नहीं है. झूठ से तो वहां के लोग जानते तक नहीं हैं. जहां प्यार की बजाय करप्शन का प्रसार ज्यादा हो उस ग्रह पर उतरा सच का हिमायती यह शख्स भी धीरे-धीरे यहां के लोगों को, उनके आचरण को, उनकी मान्यताओं आदि को समझने लगता है. वह खुद को भी इसी सांचे में ढालने की कोशिश करता है. हालांकि, शुरुआती कोशिशों में वह व्यंग का पात्र बन जाता है लेकिन धीरे-धीरे उसकी रेल सही ट्रैक पर आ जाती है. वह समाज के दोहरेपन की वजह जानने को एक इनोसेंट बच्चे की तरह कुछ सवाल पूछता है जिनके जवाब किसी के पास नहीं होते. जिसके चलते हर कोई उसे पीके कहने लगता है. हमारे गोले के लोग जिस शख्स को पीके कहते हैं उन्होंने न जाने ऐसी कौन सी शराब पी रखी है जिसका नशा उनके दिमाग पर ताउम्र हावी रहता है. इसी नशे को उतारने की एक कोशिश है फिल्म पीके.
देश में धर्म के नाम पर चल रही पॉलिटिक्स व तमाम किस्म के भेदभाव और आस्थाओं में बंटे इस समाज में भटकते हुए पीके के जरिये हम उन सारी विसंगतियों और कुरीतियों के सामने खड़े मिलते हैं, जिन्हें हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बना चुके हैं. हमें ऐसा शुरुआत से ही सिखाया गया होता है इसलिए मन में कभी सवाल नहीं उठते. यही सीख धीरे-धीरे मान्यताओं का रूप धारण कर लेती है. जिसे बदलने के लिए हम हर्गिज तैयार नहीं होते. राजकुमार हिरानी व अभिजात जोशी की कल्पना का यह एलियन चरित्र पीके हमारे ढोंग को बेनकाब कर देता है. वह भक्ति और आस्था के नाम पर ‘रॉन्ग नंबरÓ पर भेजे जा रहे संदेश की फिरकी लेता है. वह अपनी सच्चाई और लाजवाब सवालों से आस्था के प्रति अंधविश्वास व धार्मिक मठाधीशों को कटघरे में खड़ा करता है. धंधा बना चुकी धार्मिकता के प्रतीक तपस्वी को टीवी के लाइव प्रसारण में अपने तर्क से पीके खामोश कर देता है. फिल्म का क्लीयर मैसेज यह है कि भगवान एक शक्ति है, एक विश्वास है जिसे हम मानते हैं. जिसका नाम लेने से हमें काम करने की शक्ति मिलती है. धर्म के नाम पर भक्ति का मैनेजमेंट करते-करते मैनेजर बने स्वामी, बाबा, गुरु, मौलवी और पादरी डर का आतंक फैला कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं.
‘पीके’ मनोरंजक तरीके से कुछ इंपॉर्टेंट बातों पर फोकस करती है. डायरेक्टर व स्क्रिप्ट राइटर ने कलम व नजर के जरिये फ्रेम में बेहद खूबसूरती से पीके की दुनिया रची है. जिसमें भैंरो और जग्गू (जगत जननी) जैसे किरदार हैं. जग्गू की मदद से पीके अपने ग्रह पर लौट पाने का रिमोट हासिल करता है. फिल्म के लास्ट में पीके फिर से एक साल के बाद अपने ग्रह से दूसरे यात्री को लेकर आगे के शोध के लिए आता है. इस यात्री के आने से पीके-2 बनने की संभावनाओं को बल मिलता है. पीके का रिसर्च यहां के अनुभवों से पूरा हो जाता है. उसे किसी स्पेशल रिसर्च की कोई जरूरत ही नहीं पड़ती.
इस बीच जग्गू यानि अनुष्का शर्मा की भी कहानी पैरलली चलती है. उसे पाकिस्तानी मूल के सरफराज से इश्क हो जाता है. उसे मिलने की वजह बनता है पीके. जो खुद ही जग्गू के बिहेवियर के चलते उसे चाहने लगता है. लेकिन हालात ऐसे बनते हैं कि उसे जग्गू के मन में चलने वाली कहानी का पता लग जाता है. जिसके बाद वह अपनी भावनाओं को एक पर्ची व चंद कैसेट्स में समेटकर चुपचाप अपने ग्रह पर अपने संग ले जा रहा होता है. लेकिन फिल्म की नायिका को उसके मन की बात आखिर पता ही चल जाती है. वह इस बाबत जब पीके से पूछती है तो वह नजरें नहीं मिला पाता और अपने अहसासों को आंसुओं में बहाकर अलविदा कह देता है. प्रेम और गलतफहमी की नाजुक डोर पर गढ़ी गई पीके की कहानी मेरे इमोशन को टच कर गई. कहानी के अंत में एक ही शब्द मुंह से निकला. बेचारा. पीके की अधूरी लव स्टोरी व धर्म के नाम पर अंधविश्वास के आडंबर में लिपटी इस दुनिया की बेचारगी पर यह शब्द निकल ही जाता है. सरफराज और जग्गू की लव स्टोरी को सस्पेंस बनाए रखने के लिए बीच के सीन्स से एकदम गायब कर दिया गया है. इसका जिक्र तक नहीं किया गया. इसे हम पॉजिटिव व निगेटिव दोनों नजरों से देख सकते हैं. कुछ लोग इसे सीन सिक्वेंस सेट करने वाले की कमी के रूप में इसे ले सकते हैं. लेकिन आशावादी नजर से देखें तो ऐसा सस्पेंस बनाए रखने के लिए किया गया.
मुझे ऐसा लगता है कि जग्गू कि भारत वापस लौटने का एक सीन होना चाहिए था क्योंकि यह भ्रम पैदा करता है कि अनुष्का अचानक भारत आ जाती हैं. पीके के किरदार को आमिर खान ने बखूबी निभाया है. किरदार की खूबी है इसका हमारे दिलो दिमाग पर पडऩे वाला इम्पैक्ट. पीके जैसे किरदार दिल को छू लेते हैं. फिल्म में जग्गू की भूमिका में अनुष्का निराश नहीं करतीं. वह फिल्म में अपने रोल से पूरा जस्टिस करती हैं. सरफराज की छोटी सी भूमिका में आए सुशांत सिंह राजपूत में गजब का अट्रैक्शन है. वहीं अन्य भूमिकाओं में सौरभ शुक्ला, परीक्षित साहनी, बमन ईरानी, संजय दत्त आदि अपने किरदारों का चयन कहानी के अनुरूप किया गया है. फिल्म का गीत-संगीत थोड़ा कमजोर है. इस बार स्वानंद किरकिरे और शांतनु मोइत्रा का जादू खूब नहीं चला. लेकिन फिर भी एक गाने की खूबी को नहीं नकारा जा सकता. इसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूं. वहीं अन्य गीतकारों में अमिताभ वर्मा और मनोज मुंतजिर भी खास प्रभावित नहीं करते.

– प्रवीण दीक्षित

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