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गद्दी की गुदगुदी…

बेबाक 'बकबक'....जारी है..
बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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गुदगुदी से तो आप भलीभांति परिचित होंगे. आम आदमी की भाषा में बोले तो जो मचलने पर मजबूर कर दे वह है गुदगुदी. लेकिन क्या आपने गौर किया कि यही गुदगुदी इस दफे दिल्ली की गद्दी दिलाने में अहम योगदान देने वाली है? यकीन नहीं हो रहा न? आइये आपको यकीन दिलाने की कोशिश करते हैं. इसके लिए सबसे पहले आपको राजनीति की व्यापकता समझनी होगी. राजनीति यानि जहां संभवानाओं में संभावना की उम्मीद. जरा कंफ्यूजिंग है लेकिन सच है. अब देखिए न, इन दिनों दिल्ली विधानसभा चुनावों की चर्चा का दौर चहुंओर है.

किसी को सत्ता पाने की ख्वाहिश गुदगुदा रही है तो किसी को विरोधी पार्टी को चित करने के तरीके खोजने की गुदगुदी हो रही है. कोई वोटर्स के ईमान को छलकते जाम की मादकता से गुदगुदाना चाहता है तो कोई अवसरवाद की गुदगुदी से वोटर्स को गुदगुदाने के प्रयास में जुटा है. कोई आरोपों की गुदगुदी कर रहा है तो कोई दे दनादन विज्ञापन की तर्ज पर वोटर्स को लुभाने के लिए गुदगुदी कर रहा है. कहीं मैनीफेस्टो से गुदगुदाया जा रहा है तो कहीं वादों से. कोई अपने ट्रैक रिकॉर्ड का हवाला देकर गुदगुदी मचा रहा है तो कोई अपनी ईमानदारी की गुदगुदी से वोटर्स को मचलाने का प्रयत्न कर रहा है. गुदगुदी के भी कई रूप हैं. यह जैसा देश वैसा भेष के आधार पर अपना प्रभाव दिखाती है. इसके अस्तित्व की बात करें तो गुदगुदी तीन तरह की होती है. प्रेजेंट टाइम गुदगुदी, पास्ट टाइम गुदगुदी व फ्यूचर टाइम गुदगुदी. प्रेजेंट टाइम गुदगुदी का जिक्र सियासी गुदगुदी का उदाहरण देकर पहले ही कर चुका हूं.

गुदगुदी के बाकी दोनों स्वरूपों को समझने के लिए भी आइये राजनीति का ही सहारा लेते हैं. यही सबसे आसान है, सब इससे परिचित हैं और सभी को इसी ने छला है. पास्ट टाइम गुदगुदी का मतलब है कि जब सफेदपोशों के बीते बयानों की चर्चा होने लगे, अतीत में उनके द्वारा किये गए गुनाह ढूंढ लाए जाएं या फिर उनपर लगे आरोपों की गुदगुदी से विरोधियों के वोट काटने की जुगत की जाए. जबकि नीति-निर्माता बनने की गुदगुदी, नियम, कायदे व कानून बनाने की गुदगुदी आदि फ्यूचर प्लान्ड गुदगुदी का स्वरूप है. कुल मिलाकर सियासत को गुदगुदी हो रही है. जिसके चलते यह मचल-मचल कर वोटर्स को मन टटोल रही है. लेकिन गुदगुदी पर की गई इस नाचीज की रिसर्च के आधार पर यह तथ्य सामने आया है कि इस गुदगुदी की गुदगुदाहट से गद्दी पाने की जुगत में हैं सभी सफेदपोश. लेकिन मैं एक बात को लेकर कंफ्यूज हूं.
बचपन से गुदगुदी के निजी अनुभव के आधार पर मुझे यह अहसास होता आया है कि गुदगुदाने पर चेहरे पर हास्य की लकीरें खिंच जाती हैं. लेकिन सियासत की गुदगुदाने की क्रिया की प्रतिक्रिया तो इसके ठीक विपरीत है. अब या तो मेरा अहसास झूठा है या फिर सियासत की गुदगुदी में कोई झोल है. खैर, जो भी है लेकिन इतना तो तय है कि सियासी वादों की गुदगुदी से ईवीएम का बटन दबाने से पहले तक तो वोटर्स के चेहरों पर उम्मीद की मुस्कान रहती है. लेकिन यह मुस्कान बटन दबाने के बाद से धीरे-धीरे फीकी और अंतत: दम क्यों तोड़ देती है? इस क्षणभंगुर मुस्कान से गुदगुदी के मायने ही बदल जाते हैं. अब ऐसा तो है नहीं कि चुनाव के बाद लोग गुदगुदाना छोड़ देते हैं. गुदगुदाते तो रहते ही हैं. लेकिन फिर ये मुस्कान किधर निकल लेती है? यह एकदम्मै समझ नहीं आया. गद्दी पाने की जद्दोजहद में गुदगुदी का आखिर कितना योगदान है? है भी कि नहीं? अब यह दिमागी उथल-पुथल भी गुदगुदी का तो परिणाम नहीं है! इन सभी बातों पर रिसर्च जारी है…

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