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कानून व्यवस्था की कसौटी पर विफल होता समाजवाद

बेबाक 'बकबक'....जारी है..
बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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लखनऊ के हसनगंज एरिया में दिनदहाड़े ट्रिपल मर्डर हो या फिर मोहनलालगंज में महिला की अस्मिता को तार-तार कर उसकी हत्या कर देना व नग्न अवस्था में शव को खुलेआम छोड़ देना, ये दोनों ही घटनाएं उत्तर प्रदेश सरकार में बदहाल कानून व्यवस्था की तस्दीक करती हैं. सपा सरकार के साम्राज्य में जुर्म की फसल लहलहाने लगती है. बात अगर हसनगंज इलाके में हुए ट्रिपल मर्डर की करें तो खास बात यह है कि देश के सबसे बड़े राज्य का पॉश इलाका होने के बावजूद कानून से बेखौफ हत्यारों का हौसला बुलंद था. लेकिन इस बुलंद हौसले के पीछे शासन, प्रशासन व परिवारवाद की भेंट चढ़ी यूपी की सत्ता की तथाकथित बुलंदियां अपनी नाकामी शामिल है. कानून व्यवस्था पर अक्सर घिरी रहने वाली सपा सरकार की विफलता एक बार फिर सामने आ खड़ी हुई है. तर्क देने को दिया जा सकता है और दिया भी जाएगा कि सरकार जुर्म करने को थोड़े ही कहती है. चलिए मान लेते हैं अखिलेश साहब. लेकिन जरा अपने दिल पर हाथ रखकर सोचिए. क्या इन मौतों में परोक्ष रूप से आप जिम्मेदार नहीं हैं? क्या कानून नियंत्रण में आप असफल नहीं रहे हैं? क्या आपकी अफसरशाही इतनी आराम तलब नहीं हो गई है कि अपराधी दिनदहाड़े जघन्य अपराधों को सरेआम अंजाम देने में जरा भी नहीं हिचकते? क्या ऐसी ही कानून व्यवस्था के लिए जनता ने आपको पूर्ण बहुमत दिया था? साहेबान, क्या आपने कभी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर किया है? किया ही होगा. एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार कानून व्यवस्था के लिहाज से देश का सबसे बड़ा प्रदेश हाशिये पर है. अपराधों की संख्या में यहां कुछ इस कदर इजाफा होता है कि जैसे दूब की फसल उगती है. इसके बावजूद आपने कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए वैसे नियम नहीं बनाए जिनकी दुनिया में मिसाल दी जाती है. कानून व्यवस्था का सुदृढ़ होना जीने के अधिकार को परिपक्व करने की आरे उठाया जाने वाला अहम कदम है. जो सरकार अपनी प्रजा की हिफाजत करने में असफल हो उसे सत्ता में बने रहने का हक क्यों दिया जाना चाहिए? क्या नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री को इस्तीफा नहीं देना चाहिए? जब प्रदेश की राजधानी के ये हाल हैं तो फिर अन्य जनपदों में तो सुरक्षा व्यवस्था के क्या हाल होंगे, इसका आंकलन करना बेहद आसान है. लेकिन सपा सरकार को यह समझना होगा कि जिस समाजवाद की नींव पर उनकी सरकार आज टिकी है, उसमें लोहिया जी के सशक्त इरादों की ईंटें लगी हैं. लेकिन विडंबना यह है कि समाजवाद के मौजूदा झंडाबरदार ही इसकी नींव को खोखला करने के लिए जिम्मेदार हैं. उत्तर प्रदेश में नीति आधारित सरकार चलाने का वादा करना और उसे निभाना हमेशा से ही दो अलग बातें रही हैं. फिर चाहे वह कोई भी पॉलिटिकल पार्टी क्यों न हो. जनता सत्ता में बदलाव इसलिए करती है क्योंकि उसे पिछली सरकार के मुकाबले नई सरकार से कुछ बेहतर की उम्मीद रहती है. सपा सरकार को अगर बसपा सरकार के मुकाबले की कसौटी पर कसें तो बेशक बेहतर काम हुआ है. सपा सरकार ने यकीनन समाजावदी एंबुलेंस सर्विस, कन्या विद्याधन जैसी बेहतरीन योजनाओं को अमल में लाया. यह सराहनीय है. लेकिन वहीं अगर कानून व्यवस्थ की बात करें तो इसमें वह बसपा सरकार के आसपास भी नहीं दिखती. कानून व्यवस्था वह मछली है जो सपा सरकार की अच्छी नीतियों पर एक झटके में पानी फेर देती है. यही वह मछली है जो समाजवादी पार्टी की सरकार की किरकिरी का कारण बनती आई है. इसके बावजूद सपा सरकार सबक नहीं ले रही है. लूट, अपहरण, डकैती, मर्डर, रेप आदि घटनाओं का यूपी में दिनोंदिन बढ़ता ग्राफ सरकार की साख घटा रहा है. सपा सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने में असफल होना ही 2008 के विधानसभा चुनावों में हार का कारण बना था. इसके बावजूद सरकार सबक लेने को तैयार नहीं दिखती. यूपी के खौफजदा माहौल में उक्त मौतें भले ही लोगों की सिसकियों से दब जाएं लेकिन सत्ता परिवर्तन के वक्त जनता इस सिसकियों को बदला लेना बखूबी जानती है. ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी को एक जिम्मेदार पार्टी होने की नजीर पेश करते हुए अपराध जगत के खात्मे के लिए कुछ ऐसी ठोस पहल करनी होगी जिसकी मिसाल आने वाले दिनों में दी जाए और उत्तर प्रदेश अपराध मुक्त राज्य में अव्वल बने. यह यकीनन किसी ख्वाब से कम तो नहीं है लेकिन फिर भी उम्मीदों की गुंजाइश दम नहीं तोडऩी चाहिए. हो सकता है कि हम वो सूरज भी देखें जिसकी किरणों से उत्तर प्रदेश के अपराध मुक्त होने का संदेश मिल रहा हो. अगर अखिलेश यादव की नजर में ऐसे सूरज की किरणों का प्रस्फुटित होना होना असंभव हो तो उन्हें नैतिकता के नाते तुरंत अपना त्यागपत्र दे देना चाहिए. वैसे भी शायद मौजूदा हालात भी कुछ ऐसा ही कह रहे हैं कि कानून व्यवस्था अब अखिलेश के बस की बात नहीं.

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