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छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में पीएम मोदी ने कहा, कंधे पर बंदूक नहीं बल्कि हल होने से ही विकास होगा और इससे हर कोई विकास की मुख्य धारा से जुड़ सकेगा. हिंसा का कोई भविष्य नहीं है. भविष्य सिर्फ शांतिपूर्ण कार्यों में है. नक्सल आंदोलन के जन्मस्थल नक्सलबाड़ी ने पहले ही हिंसा का रास्ता छोड़ दिया है. निराश न हों, मौत का तांडव खत्म होगा. प्रधानमंत्री ने बागियों से कहा कि कुछ दिन के लिए अपनी बंदूकें रख दें और उनकी हिंसा से जो परिवार प्रभावित हुए हैं, उनसे मिलें. यह अनुभव आपको आपका मन बदलने पर मजबूर कर देगा और आपको हिंसा का रास्ता छोडऩे की प्रेरणा देगा. कहा कि लोकतंत्र में हिंसा का कोई भविष्य नहीं है. कंधे पर हल से विकास हो सकता है, बंदूक से नहीं. मोदी ने कहा कि मौत का तांडव खत्म होगा. लक्ष्य हासिल करने के लिए कभी जीवन को सफलता और असफलता के तराजू में नहीं तोलना चाहिए. विफलताओं से हमें सीखना चाहिए. सफलता का हिसाब लगाने से निराशा आती है. मैं सफलता के लक्ष्य से काम नहीं करता. विफलता और सफलता आती रहती है.
पहली नजर में तो किसी प्रधान सेवक की ये बातें अच्छी लगती हैं. चलो एक अरसे बाद कोई तो ऐसा प्रधानमंत्री मिला जो किसी मुखिया की जिम्मेदारियों को बखूबी समझता है. लेकिन गंभीरता से सोचने पर मैंने यह पाया कि मोदी जी ने यह सब आखिर किससे कहा है? उनसे जिनके लिए दूसरों की जान की कोई वैल्यू नहीं? या फिर उनसे जो अपनी मांगों को लेकर अरसे से जिद्दी बने हुए हैं? क्या मोदी जी को वाकई यकीन है कि इन बातों के जरिए उन्होंने नक्सलियों को जो संदेश दिया है, वे उसे जायज मानेंगे? क्या वे भविष्य में हथियार नहीं उठाएंगे? मोदी जी आपको यकीन होगा लेकिन मुझे रत्ती भर यकीन नहीं. बदलते वे हैं जो बदलने की चाहत रखते हैं. जिनमें तनिक भी इंसानियत बची होती है. लेकिन नक्सलियों में न तो जज्बात हैं और न ही इंसानियत. फिर वे भला क्यों किसी की बात मानने लगे? और वैसे भी, अब तक नहीं माने तो आगे क्या मानेंगे?
बीते लोक सभा चुनाव की बात है. अप्रैल 2014 में चुनाव प्रचार के दौरान आपने ही कहा था कि देश को चलाने के लिए 56 इंच का सीना चाहिए. तो फिर नक्सलियों को दिए गये संदेश में इतनी बेबसी आखिर क्यों? नक्सलियों को जज्बाती पाठ पढ़ाने का क्या फायदा? सुधार की गुंजाइश वहीं होती हैं जहां चाह हो. लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नहीं. आप प्रधानमंत्री हैं. चेतावनी दीजिए. उन्हें इस बात का भान कराइये कि अगर तुम हथियार उठा सकते हो तो हमने भी चूडिय़ां नहीं पहन रखीं. मोदी जी, कम से कम आपसे तो यह उम्मीद की ही जा सकती है. आंतरिक लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाने वालों के खिलाफ कड़े कदम उठाने की जरूरत है. वर्ना कहीं भविष्य में ऐसा कहने को न हो जाए कि घर के भेदी ने ही लंका ढा दी. इस भेडिय़ों से बातचीत का दौर नहीं चलना चाहिए. इन्हें अंतिम चेतावनी देनी चाहिए. लेकिन छत्तीसगढ़ यात्रा पर आपने ऐसा कुछ भी नहीं किया. निराशा हुई. लेकिन फिर भी, हम देशवासियों को अब भी आपसे उम्मीदे हैं.
और हां, आपने नक्सलियों के गढ़ में जाकर जिस तरह बच्चों के सवालों का जवाब दिया, वह एक जिगर वाला ही कर सकता है. छत्तीसगढ़ के इतिहास में पहली बार हुआ कि किसी प्रधानमंत्री ने वहां के बच्चों के साथ मनोरंजन किया. उनसे घुले-मिले और उनकी सवालों का कोई राजनीतिक नहीं, बल्कि आदमियतता से जवाब दिया.
आपने जीवन की सफलता और मेहनत से जुड़े ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया, जो साफ तौर पर लग रहा था कि ये दिल की आवाज़ है. आपका यह सब कहना कि जो अपनों के लिए जीते हैं, उन्हें थकान नहीं होती. तनाव काम करने से नहीं होता, तनाव काम नहीं करने से होता है. मैं काम करने के घंटे नहीं गिनता आदि दर्शाता है कि हमारे पीएम के इरादे मजबूत हैं. लेकिन आज लगा कि मजबूती में मायूसी की नमी जाकर छिप गई है. देख लीजिएगा. हम तो आपके भरोसे ही हैं, मोदी जी.
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