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हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं, कुछ और ही है!

बेबाक 'बकबक'....जारी है..
बेबाक 'बकबक'....जारी है..
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लोग हिन्दियाने लगे हैं और हिंदी की चाटुकारिता कर चाय पानी पीने लगे हैं। यह पक्का प्रमाण है कि हिंदुस्तान में हिंदी पखवारे का आगमन हो गया। इस पर्व को पन्द्रह दिनों तक मनाने के लिए सरकार प्रचुर धनराशि खर्च करती है। इस लिए पैसे की स्वीकृति पूर्व में ही करा ली जाती है। फिर क्या हर कार्यालय के प्रमुख ,हिंदी अधिकारी व कर्मचारी नेमी कार्यों से विरत हो नित एक नया कार्यक्रम आयोजित करते हैं और स्मृतिचिन्ह ,पुरस्कार व जलपान में पैसे समायोजित करते हुए हिंदी को भरपूर उपकृत करते हैं। इस पखवारे में ऐसे निठल्ले कहे जाने वाले कर्मचारियों की ,जिन्हें केवल हिंदी लिखना ,बोलना आता है, उनकी वैसे ही पूछ बढ़ जाती है जैसे शरद ऋतु में खञ्जन पक्ष की। गैर हिंदी भाषी कर्मचारी जिन्हे थोड़ी बहुत हिंदी आती है वे तो इस पखवारे में साइबेरिया से आये प्रवासी पक्षियों की भाँति गोष्ठियों में दर्शनीय व शोभनीय हो जाते हैं।जहाँ चाह है वहाँ राह है। दो चार लोग वाद -विवाद ,टिप्पण , टंकन,लेखन ,आलेखन इत्यादि में भाग लेने केलिए जुटा लिए जाते हैं। निर्णायक की भूमिका के लिए हिंदी के लाभार्थी तथा व्याख्यान के लिए धनार्थी हर कार्यालय को बड़ी सुगमता से मिल जाते हैं। चूँकि पैसे से जुड़ा है अतः प्रिंट एवँ इलेक्ट्रानिक माध्यमों की भी सहभागिता हो जाती है। बड़े ही आनन्दमय वातावरण में ‘हिंदी पखवारा फिर अहियो साथ में थोड़ा ज्यादा बजट ले अहियो’ की कामना के साथ विभागाध्यक्षों द्वारा पखवारे का समापन कर दिया जाता है। फिर वही यक्ष प्रश्न कि लेखा डेवढ़ा थाहे तो लड़के डूबे काहे ?

स्वाधीन भारत में हिंदी के प्रगामी प्रयोग को बढ़ाने एवँ,इसके प्रचार प्रसार हेतु दशकों से हर वर्ष यह सरकारी पर्व मनाया जा रहा है परन्तु हिंदी देश की राजनीतिक देहरी पर, अपने हक़ के लिए, सात दशकों से अनवरत खड़ी है।हमारे नेता इसे राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की बात करते हैं परन्तु राष्ट्र भाषा बनाने की चर्चा से कन्नी काट जाते हैं। प्रारंभिक दिनों में बाबुओं द्वारा सरकार के ज्ञाप ,परिपत्र या पत्र अंग्रेजी में जारी हो जाते थे और नीचे लिख दिया जाता था -हिंदी वर्जन फलोज। आश्चर्य है आज भी वैसा ही हो रहा है। इस प्रक्रिया को हिंदी की नियमित मासिक प्रगति रिपोर्ट बनानेवाले बाबू इतने वर्षों में उलट तक नहीं सके कि कोई अभिलेख हिंदी में पहले जारी हो और उस पर लिखा हो कि अंग्रेजी अनुवाद साथ -साथ।हमारे लोकतंत्र में विश्वसनीयता के पैमाने पर सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है परन्तु आज तक उसे भी चिन्ता नहीं हुई कि वह जो फैसले अंग्रेजी में देती है उसका सीधा सम्वन्ध जनता से है जिसकी मातृ भाषा हिंदी है या हिंदी की सहोदरी भाषाएँ। ऐसे में फैसले भी वकील या उन जैसे दुभाषिये पढ़ कर न्याययाची को बताते हैं।ये न्याय देने वाले भारतीयता का कौन सा आदर्श उच्च या निचले न्यायालयों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। जनहित की सोचने वाले जनहित का मरम जानने में विफल हैं।अब वे तर्क बेमानी लगते हैं कि हिंदी में तकनीकी शब्दावली क़ी कमी है या विज्ञानं,अभियांत्रिकी ,अंतरिक्ष ,कानून जैसे विषय हिंदी में ब्यक्त नहीं हो पाते। भाषाओँ की दूरियाँ मिट रही हैं। अंग्रेजी का ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष प्रति संस्करण अनेकों हिंदी के शब्द आत्मसात कर रहा है। वैसे ही हिंदी में अन्य भाषाओँ के अनेकानेक शब्द घुल मिल रहे हैं।जिन शब्दों के अन्य भाषाओँ में समानार्थी नहीं होते वे शब्द हर भाषा के लिए सर्वमान्य रूप में लिए जाते हैं। भाषा पर महात्मा गाँधी के यही विचार थे जब वे हिंदुस्तानी भाषा पर बल देते थे। अतः इस बहकाने वाले कुतर्क से हट कर उस मन्तब्य को सामने लाना चाहिए जो हिंदी से भेद भाव का मूल कारण है।

इस भेद भाव की नींव भारत की पराधीनता के दिनों में पड़ी जब अंग्रेज शासन करते थे। उनकी अपनी शासन शैली थी जिसमें वे अपनी अँग्रेजी भाषा ,अपनी सभ्यता ,अपनी जाति एवँ अपनी शिक्षा को पूरी दुनियाँ में सर्व श्रेष्ठ मानते थे।वे लोग लम्बे शासन काल में देशी साधन संपन्न लोगों को अपने साँचे में ढाल कर कर देशी अंग्रेज बनाते गए। स्वतंत्रता मिलने तक इस देश में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति की जड़ें बहुत सुद्दृढ की जा चुकी थीं और देशी अंग्रेज़ या इंडियन, अंग्रेजियत के साथ, सत्ता सँभालने के लिए तैयार हो चुके थे। फिर क्या था ये देशी इंडियन सत्ता सँभाल लिए और देशी भाषाओँ को भारतीयों की भाषा तक सीमित कर आज तक भारत पर नियंत्रण किये हुए हैं।ये इंडियन ही भारती एवँ भारतीयता के अहित साधक है जो हिन्दी पखवारा का आयोजन कर करा कर हिन्दी भाषियों को तुष्ट करने का उपक्रम करते हैं।परन्तु साठ करोड़ से भी अधिक देशी हिंदी भाषी एवँ दुनियाँ में फैले भारतीय मूल के लोग अपनी भाषा के साथ हो रहे दुर्भाव को सहन करते हुए आज भी उसकी सेवा तथा प्रचार -प्रसार में अनवरत लगे हुए हैं।ये असंख्य हिंदीभाषी अपनी इस मातृ भाषा को विश्व की सम्पन्नतम व सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओँ में पहचान दिला चुके हैं और उसे वह हर प्रतिष्ठा भी दिलायें गे जो साहित्य ,कला ,लालित्य से ओतप्रोत एक जीवंत लोकप्रिय भाषा को मिलनी चाहिए।हिंदी का गंतब्य राजभाषा ,संपर्कभाषा से आगे राष्ट्र भाषा के रास्ते विश्व भाषा बन कर अन्तरिक्ष के अनंत रहस्यों तक है।

हिंदी पखवारा जैसे आयोजनों के औचित्य पर भी हिंदी साधकों के दो परस्पर विरोधी धड़े हैं।एक निःस्वार्थ साधकों का वर्ग है जो पूर्व ऐतिहासिक काल से अर्थात संस्कृत वांग्मय से उद्गमित होने से अब तक इस भारती की सेवा तल्लीन है। दूसरे वर्ग में हिन्दी के लाभार्थी साधक हैं जिनकी परम्परा बीर गाथा काल के चारण अथवा भाटों से आरम्भ हो भक्ति एवँ रीति काल के दरबारी साहित्यकारों से होते हुए आधुनिक काल के सरकारी सजावटी साहित्यकारों तक है।निःसंदेह दोनों वर्ग के साधक आज की आधुनिक हिन्दी के लिए सराहनीय कार्य कर रहे हैं परन्तु हिंदी को श्रेष्ठता की धार देने वाले निःस्वार्थ साधक रहे हैं जिन्होनें हिंदी की सेवा स्वान्तःसुखाय की है या कर रहे हैं। यह वही परम्परा है जिसका श्रीगणेश गोस्वामी तुलसी ने यह लिख कर किया कि भाषाबद्ध करब हम सोई ,मोरे मन भरोस जेहि होई।कारण बताया कि कीरति ,भनति ,भूति भल सोई,सुरसरि सम सबकर हित होई।अतः हिंदी के निःस्वार्थ सेवक,हिन्दी के कामिल बुल्के सरीखे विदेशी विद्वान व विदेशी शैक्षिक संस्थान सभी भूरि -भूरि प्रसस्ति के पात्र हैं। हिंदी की मौजूदा स्थिति से अच्छा तो था कि हिंदी राष्ट्रभाषा होती ही न तो बेहतर था! राम ही राखे !index

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